अब क्या कहें जो मौसम-ए-गुलशन का हाल है फूलों से राब्ता न सबा का ख़याल है हर आरज़ू की आँख में आँसू लहू के हैं किस का ये दिल के शहर में यौम-ए-विसाल है मुझ को किया था क़ैदी-ए-तक़दीर किस लिए क़ुदरत से इंतिज़ार-ए-जवाब-ओ-सवाल है जज़्बों की अंजुमन में उसी की है रौशनी गुल-हा-ए-आरज़ू में उसी का जमाल है जो बुख़्ल से किया है इकट्ठा तमाम उम्र तेरा नहीं है वो तिरे बेटों का माल है हर गोशा-ए-ज़मीं पे ज़रा ग़ौर से पढ़ो लिक्खी जो दास्तान-ए-उरूज-ओ-ज़वाल है 'शाहिद' वो पूछते हैं मिरा हाल क्या कहूँ जैसा था पिछले साल वही अब के साल है