अजब बिगड़े मुक़द्दर बन गए हैं जो दरिया थे समुंदर बन गए हैं ज़मीं से उड़ के ज़र्रे आसमाँ पर मह-ओ-परवीन-ओ-अख़्तर बन गए हैं सर-ए-लौह-ए-तसव्वुर कैसे कैसे अधूरे नक़्श पैकर बन गए हैं हमें बख़्शी है नर्मी मौसमों ने मगर कुछ लोग पत्थर बन गए हैं मिला है यूँ हमें ग़म का ख़ज़ाना हमारे अश्क गौहर बन गए हैं शब-ए-ग़म भूले-बिसरे चंद चेहरे चराग़-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर बन गए हैं उन्हें क्या ख़ौफ़ हो 'शाहिद' ख़ुदा का ख़ुदा जो इस ज़मीं पर बन गए हैं