अब मैं ख़ुद को आज़माना चाहती हूँ ग़म में खुल कर मुस्कुराना चाहती हूँ ये तमाशा भी दिखाना चाहती हूँ आग पानी में लगाना चाहती हूँ हिजरतों का बोझ अब उठता नहीं है मुस्तक़िल कोई ठिकाना चाहती हूँ दुश्मनों का इम्तिहाँ मैं ले चुकी हूँ दोस्तों को आज़माना चाहती हूँ मुझ को 'ज़ीनत' सोने देती ही नहीं हैं उन की यादों को भुलाना चाहती हूँ