अब तर्ज़-ए-अमल उन की बदल जाए तो अच्छा हाल-ए-दिल-ए-नाशाद सँभल जाए तो अच्छा हर रोज़ सुनाता हूँ उसे क़िस्सा-ए-उल्फ़त अफ़्सूँ ये मिरा यार पे चल जाए तो अच्छा बेचैन रहा करता हूँ रहने से मैं उस के सीने से मिरे दिल ही निकल जाए तो अच्छा जोश-ए-मय-ए-उल्फ़त से न फट जाए ख़ुम-ए-दिल आँखों से उबल कर ये निकल जाए तो अच्छा दिल रश्क से सुलगाते हैं 'साबिर' का वो हर रोज़ इक्सीर बने ऐसा ये जल जाए तो अच्छा