अब तो आए नज़र में जो भी हो नींद के बाम-ओ-दर में जो भी हो जिस्म-ओ-जाँ का मकाँ हुआ ख़ाली ऐसे तन्हा सफ़र में जो भी हो गूँजते हैं फ़ज़ा में सन्नाटे टूटने के असर में जो भी हो गुम तो होगा सितारा-ए-शब-ए-दिल कम है इस रात भर में जो भी हो धूप हो अब्र हो कि साया-ए-गुल अब तो इस रहगुज़र में जो भी हो 'ख़ावर' उस सब्ज़ ख़ेमा-ए-गुल तक इस कड़ी दोपहर में जो भी हो