अब ये कैफ़िय्यत-ए-दिल है कि छुपाए न बने और जो वो पूछें कि क्या है तो बताए न बने तुम को आज़ुर्दगी-ए-दिल का मज़ा क्या मा'लूम काश तुम से भी कोई काम बनाए न बने तू ने क्यूँ उन को ग़म-ए-ज़ीस्त दिया है यारब जिन से इक रंज-ए-मोहब्बत भी उठाए न बने हाए क्या पास-ए-मोहब्बत है कि तन्हाई में भी अश्क आँखों में रहे और बहाए न बने हम-नशीं पूछ न इस बज़्म की रस्में कि जहाँ मुझ से वहशी को भी बिन होश में आए न बने वक़्त की चारागरी यूँ तो मुसल्लम है मगर ज़ख़्म भी वो है कि ता-उम्र दबाए न बने ये भी इक रस्म-ए-तमाशा है वहाँ ऐ 'आली' देखते रहिए मगर आँख उठाए न बने