अबस हैं नासेहा हम से ज़-ख़ुद-रफ़तों की तदबीरें रुके है बहर कब गो मौज से हों लाख ज़ंजीरें हमारी आह से आगे तो पत्थर आब होते थे प क्या जाने वो अब कीधर गईं नाले की तासीरें ये इक सूरत है गर खींचे वो मेरे यार का नक़्शा मैं कब मअ'नों हूँ यूँ मानी लिखे गर लाख तस्वीरें लगाई आग पानी में ये किस के अक्स ने प्यारे कि हम-दीगर चली हैं मौज से दरिया में शमशीरें सुना ही मैं न गोश-ए-लुत्फ़ से अहवाल को मेरे छुपी थीं वर्ना ख़ामोशी में अपनी लाख तक़रीरें रखे है होश अगर तू क़स्र कर तूल-ए-इमारत का कि इस बुनियाद पर कब तक करेगा तू ये तामीरें गरेबाँ की तो 'क़ाएम' मुद्दतों धज्जिएँ उड़ाई हैं प ख़ातिर जम्अ उस दिन होवे जब सीने को हम चीरें