लम्हा लम्हा दर्द टपकता रहता है जाने अंदर कौन सिसकता रहता है इक आहट सी होती रहती है दिल में इस सहरा में कौन भटकता रहता है हिज्र-ज़दा इक आशिक़ महव-ए-ग़म अक्सर माज़ी के औराक़ पलटता रहता है फूल सी कोई याद है उस से वाबस्ता मेरे दिल का ज़ख़्म महकता रहता है दिल जैसे मेले में खोया इक बच्चा हर आहट की ओर लपकता रहता है सर पर इतनी धूप सफ़र है सहरा में मेरा सारा जिस्म झुलसता रहता है दिल में इतनी आग नहीं जो जल उठ्ठे बस यूँही चुप-चाप सुलगता रहता है