अभी इक आस है साक़ी कि दौर-ए-जाम आता है उलट दें मै-कदा रिंदों को ये भी काम आता है कुछ इस तरकीब से अब आशियाँ आबाद होते हैं कि बर्बादी का ख़ुद अपने ही सर इल्ज़ाम आता है ये क्या बद-नज़्मियाँ हैं तेरे मयख़ाने में ऐ साक़ी किसी के नाम का साग़र किसी के नाम आता है मिरे अश्कों से निस्बत क्या तबस्सुम को तिरे लेकिन शगुफ़्त-ए-गुल का कुछ शबनम पे भी इल्ज़ाम आता है कहाँ की याद किस का ज़िक्र उन की बज़्म-ए-रंगीं में हमारा नाम भी अब तो बराए-नाम आता है ख़ुदा शाहिद कि दिल से तो ख़ुदा का नाम लेता हूँ मगर लब पर जब आता है तुम्हारा नाम आता है अदब से अर्श-ए-आज़म भी झुका देता है सर अपना हरीम-ए-क़ुद्स में इंसान का जब नाम आता है 'शिफ़ा' ये इंक़लाब इक इम्तिहाँ है अहल-ए-उल्फ़त का हमें ये देखना है कौन किस के काम आता है