अभी ज़रा सी हवा लगी है अभी मोहब्बत नहीं हुई है किसी पे मर के है जीना सीखा जो जान दे दी तो जाँ बची है जो मैं ने पूछा कि इश्क़ है क्या वो हंस के बोले ये ज़िंदगी है जो क़ल्ब को ज़िंदगी न बख़्शे वो बंदगी भी क्या बंदगी है यूँ इल्म मालूम को न समझो ये इल्म मालूम की नफ़ी है ये इश्क़ की है नमाज़ जिस में न तो इमाम और न मुक़तदी है तुम्हारी मौला की खोज 'आलम' ये हाथ कंगन को आरसी है