अब्र फिर से उठा झूम कर बारिशों को लपेटे हुए लौट आए परिंदे सभी बाल-ओ-पर को समेटे हुए ज़िंदगी-भर मुख़ालिफ़ रहे मौत ने इक जगह कर दिया ऐ ज़मीं तेरी आग़ोश में दोस्त दुश्मन हैं लेटे हुए अपने आ'माल की है सज़ा हुक्मरानी फ़क़ीरी बनी याद हैं वो ख़ज़ाने सभी अपने हाथों समेटे हुए मेरी झोली में बेटे नहीं फिर भी ख़ुश हूँ मैं ये सोच कर मुस्तफ़ा के नसब के अमीं फ़ातिमा के ही बेटे हुए हर क़यामत गुज़र ही गई ख़ुश रहूँ या कि ग़मगीन हूँ आज मंज़िल पे पहुँचा मगर अपनी हस्ती समेटे हुए 'शाहिद' अनवर तिरे हुक्म पर हाथ फैलाए बैठा है यूँ चँद अश्कों की सौग़ात और कुछ दुआएँ समेटे हुए