अदा-शनास तिरा बे-ज़बाँ नहीं होता कहे वो किस से कोई नुक्ता-दाँ नहीं होता सब एक रंग में हैं मय-कदे के ख़ुर्द ओ कलाँ यहाँ तफ़ावुत-ए-पीर-ओ-जवाँ नहीं होता क़िमार-ए-इश्क़ में सब कुछ गँवा दिया मैं ने उम्मीद-ए-नफ़ा में ख़ौफ़-ए-ज़ियाँ नहीं होता सहम रहा हूँ मैं ऐ अहल-ए-क़ब्र बतला दो ज़मीं तले तो कोई आसमाँ नहीं होता वो मोहतसिब हो कि वाइज़ वो फ़लसफ़ी हो कि शैख़ किसी से बंद तिरा राज़-दाँ नहीं होता वो सब के सामने इस सादगी से बैठे हैं कि दिल चुराने का उन पर गुमाँ नहीं होता जो आप चाहें कि ले लें किसी का मुफ़्त में दिल तो ये मुआमला यूँ मेहरबाँ नहीं होता जहाँ फ़रेब हो 'मज्ज़ूब' ये तिरी सूरत बुतों के इश्क़ का तुझ पर गुमाँ नहीं होता