अदावतों से मोहब्बत का ग़म निकालते हैं हम अपने दिल को भी मर्ज़ी से कब उछालते हैं ये पूरी दुनिया ही बेहोश हो गई है भला हमें ख़बर ही नहीं किस को कब सँभालते हैं जहाँ जहाँ भी ज़रूरत पड़ी मोहब्बत की हम अपने ख़ून को पैकर में भर ही ढालते हैं ख़ुद ऐसे दोस्त रक्खे हैं कि जो वफ़ा न करें हम अपने शौक़ से ज़हरीले साँप पालते हैं ये मय-कदे की रिवायत अजब लगी 'बुशरा' जो गिरने लगता है उस को नहीं सँभालते हैं