अफ़्कार-ए-हसीं ले के ग़ज़ल आज तक आई यूँ 'दाग़' से होती हुई 'मेराज' तक आई मेरे दिल-ए-मुज़्तर की तरफ़ आई तिरी याद यूँ बाद-ए-सबा गुलशन-ए-ताराज तक आई क़दमों ने तिरे धूल उड़ाई जो सफ़र में ऐ शाह वही गर्द तिरे ताज तक आई ख़ैरात की तक़्सीम अमीरों ने की बे-शक ख़ैरात कहाँ दामन-ए-मुहताज तक आई दौलत के लिए अपनी अना बेच दी उस ने उस शख़्स को लेकिन न ज़रा लाज तक आई जो बात भी मैं ने कही महबूब से 'मेराज' कूचे से निकल कर वही मिनहाज तक आई