हुस्न की सर-फिरी पुरवाई से डर लगता है

हुस्न की सर-फिरी पुरवाई से डर लगता है
इक जवाँ पेड़ हूँ तन्हाई से डर लगता है

घर की तक़्सीम वसिय्यत के मुताबिक़ होगी
फिर भी क्यों मुझ को सगे भाई से डर लगता है

तोड़ दे जो मुझे सूखी हुई लकड़ी की तरह
ऐसे जज़्बात की अंगड़ाई से डर लगता है

इस क़दर झूट मुसल्लत है अभी दुनिया पर
आज हर शख़्स को सच्चाई से डर लगता है

कुछ चटानों ने सँभाला है पहाड़ों का वक़ार
कुछ चटानों को मगर राई से डर लगता है

दाद-ओ-तहसीन बुरी चीज़ नहीं है 'मेराज'
बस मुझे हाशिया-आराई से डर लगता है


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