ये किस के आस्ताने की ज़मीं मा'लूम होती है कि जुम्बिश में मिरी लौह-ए-जबीं मा'लूम होती है दो-रंगी दैर-ओ-का'बा की नहीं मा'लूम होती है हक़ीक़त आश्ना मेरी जबीं मा'लूम होती है मैं चाहूँ भी तो संग-ए-आस्ताँ से उठ नहीं सकता कि जुज़्व-ए-आस्ताँ अपनी जबीं मा'लूम होती है दवाँ है कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ यूँ बहर-ए-हस्ती में कहीं उभरी कहीं डूबी कहीं मा'लूम होती है ये इक बे-रब्त सी जामा-दरी और अपने ही हाथों जहाँ पहले था दामन आस्तीं मालूम होती है ये जल्वा-ज़ार-ए-दुनिया भी अजब आईना-ख़ाना है कि हर तस्वीर हैरत-आफ़रीं मा'लूम होती है तजल्ली हुस्न-ए-जानाँ की नहीं मौक़ूफ़ ऐमन पर जहाँ महसूस करता हूँ वहीं मा'लूम होती है नज़र आते हैं जल्वे वो जहाँ के उन की चौखट पर ख़ुदाई अब मिरे ज़ेर-ए-नगीं मा'लूम होती है उतर आया है नक़्शा आस्तान-ए-यार का 'अफ़्क़र' जबीन-ए-शौक़ अब मेरी जबीं मा'लूम होती है