अफ़्साना-दर-अफ़्साना हो अफ़्साना किसी का अल्लाह बना दे उन्हें दीवाना किसी का बस्ती थी किसी की न ये वीराना किसी का जाएगा जहाँ चाहेगा दीवाना किसी का जिस शय पे नज़र की मय-ए-सरशार थी गोया मदहोश हुआ जाता है मस्ताना किसी का क्या शौक़ था शैदा-ए-सर-ए-तूर को लेकिन देखा न गया जल्वा-ए-जानाना किसी का तू कौन है मैं कौन हूँ क्या तुझ को बताऊँ मैं है मेरी हक़ीक़त भी तो अफ़्साना किसी का छेड़ोगे न जब तक ग़म-ए-गेसू-ए-हिकायत मानेगा न ज़ंजीर को दीवाना किसी का क्यों शैख़-ए-हरम कुछ तिरी आँखों ने भी देखा का'बा भी बना जाता है बुत-ख़ाना किसी का कसरत में भी नैरंगी-ए-वहदत के हैं जल्वे छुपता है कहीं रंग-ए-जुदागाना किसी का सदक़े तिरी इन जाम-नुमा आँखों पे साक़ी भर दे इन्हीं पैमानों से पैमाना किसी का बेगाना वो क्यों होश-ए-दो-आलम से न रहता दीवाना नहीं था कोई दीवाना किसी का ख़ुद शम्अ' बना जाता है ये सोज़ तो देखो जलता है तो बुझता नहीं परवाना किसी का होता है तो हो जाए फ़िदा क़दमों पे उस के मुँह देखे न अब हिम्मत-ए-मर्दाना किसी का आदाब-ए-मोहब्बत में नहीं दख़्ल-ए-शरीअ'त लाज़िम है 'जुनूँ' सज्दा-ए-यज़्दाना किसी का