अगर क़दम तिरे मय-कश का लड़खड़ा जाए तो शम्-ए-मै-कदा की लौ भी थरथरा जाए अब इस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी मुझ को कि चाहता हूँ तुझे भी भुला दिया जाए मुझे भी यूँ तो बड़ी आरज़ू है जीने की मगर सवाल ये है किस तरह जिया जाए ग़म-ए-हयात से इतनी भी है कहाँ फ़ुर्सत कि तेरी याद में जी भर के रो लिया जाए उन्हें भी भूल चुका हूँ मैं ऐ ग़म-ए-दौराँ अब इस के ब'अद बता और क्या किया जाए न जाने अब ये मुझे क्यूँ ख़याल आता है कि अपने हाल पे बे-साख़्ता हँसा जाए गुरेज़ इश्क़ से लाज़िम सही मगर 'रिफ़अत' जो दिल ही बात न माने तो क्या किया जाए