अगर मुझ से मिरी कुछ आतिश-ए-ग़म कम नहीं होती कोई तदबीर तुझ से भी तो चश्म-ए-नम नहीं होती बुरा हो सोज़िश-ए-दिल का बुरा हो सोज़-ए-फ़ुर्क़त का लगी है आग वो दिल में कभी जो कम नहीं होती तसव्वुर हो किसी का दिल में या रातें जुदाई की ख़लिश तेरी कभी ऐ सोज़-ए-फ़ुर्क़त कम नहीं होती बुत-ए-काफ़िर-अदा तुझ से तिरी तस्वीर अच्छी है मिरी रूदाद-ए-ग़म सुन कर कभी बरहम नहीं होती चलें बाद-ए-ख़िज़ाँ के रात-दिन झोंके गुलिस्ताँ में मोहब्बत वो कली है जिस की ख़ुशबू कम नहीं होती करूँ तो क्या करूँ तदबीर मैं इस सोज़-ए-फ़ुर्क़त की बुझाने पर भी मेरी आतिश-ए-ग़म कम नहीं होती तड़पना देखती रहती है मेरा 'राज़' फ़ुर्क़त में शब-ए-ग़म तू भी क़िस्मत से मिरी हमदम नहीं होती