हुस्न की शम्अ के परवाने चले आते हैं बे-बुलाए हुए दीवाने चले आते हैं क्या मिरे दिल को वो समझाने चले आते हैं या'नी और आग को सुलगाने चले आते हैं फ़स्ल-ए-बादा भी नहीं मस्त घटाएँ भी नहीं क्यों छलकते हुए पैमाने चले आते हैं दर्द-ए-दिल देते हैं और ख़ुद ये करम करते हैं रोने वालों को वो समझाने चले आते हैं रहम से ख़ाली नहीं मेरे लिए उन का सितम इस दिल-ए-ज़ार को तड़पाने चले आते हैं तुम न आए सितम अफ़सोस अयादत के लिए अपने तो अपने हैं बेगाने चले आते हैं कोई पोशीदा नहीं राज़-ए-मोहब्बत लेकिन 'राज़' हमराज़ को समझाने चले आते हैं