अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ मगर ये दिल तिरी जानिब से साफ़ भी न हुआ तअ'ल्लुक़ात के बर्ज़ख़ में ही रखा मुझ को वो मेरे हक़ में न था और ख़िलाफ़ भी न हुआ अजब था जुर्म-ए-मोहब्बत कि जिस पे दिल ने मिरे सज़ा भी पाई नहीं और मुआ'फ़ भी न हुआ मलामतों में कहाँ साँस ले सकेंगे वो लोग कि जिन से कू-ए-जफ़ा का तवाफ़ भी न हुआ अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई बहुत दिनों से तो ये हौज़ साफ़ भी न हुआ हवा-ए-दहर हमें किस लिए बुझाती है हमें तो तुझ से कभी इख़्तिलाफ़ भी न हुआ