अहद-ए-रफ़्ता की हिकायत कर्बला से कम न थी ज़िंदगानी नस्ल-ए-आदम पर बला से कम न थी ख़ून के दरिया की लहरों में बशर ग़र्क़ाब था वक़्त की रफ़्तार गोया बद-दुआ से कम न थी फिर रहे थे हुक्मराँ कश्कोल ले कर दर-ब-दर बंदगी की ज़ाहिरी सूरत गदा से कम न थी हर तरफ़ ख़ूनीं भँवर हर सम्त चीख़ों के अज़ाब मौज-ए-गुल भी अब के दोज़ख़ की हवा से कम न थी माबदों में जिन के ईमाँ पर लहू छिड़का गया उन के ख़ाल-ओ-ख़त की रौनक़ पारसा से कम न थी ज़ुल्म के इफ़रीत ने शहरों को वीराँ कर दिया यूँ तो बर्बादी जहाँ में इब्तिदा से कम न थी ऐसी ज़ालिम दास्तानें कान में पड़ती रहीं हैसियत जिन की तिलिस्मी माजरा से कम न थी जाने किस गिर्दाब-ए-ज़ुल्मत में डुबोया है उन्हें जिन की रौशन रहनुमाई नाख़ुदा से कम न थी