अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं ज़ुल्मत-ए-दौराँ में ख़ुर्शीद-ए-सहर मिलते नहीं मंज़िलों की जुस्तुजू का तज़्किरा बे-सूद है ढूँडने निकलो तो अब अपने ही घर मिलते नहीं आदमी टुकड़ों की सूरत में हुआ है मुंतशिर वहदत-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र वाले बशर मिलते नहीं रास्ते रौशन हैं आसार-ए-सफ़र मादूम हैं बस्तियाँ मौजूद हैं दीवार-ओ-दर मिलते नहीं ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा दिलों में दफ़्न हो कर रह गया आँख वालों में भी अब अहल-ए-नज़र मिलते नहीं बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले साथ हो कर हम-सफ़र से हम-सफ़र मिलते नहीं ज़ेहन की चटयल ज़मीं से आँच आती है 'ज़हीर' अब यहाँ एहसास के रंगीं शजर मिलते नहीं