इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा शब की सियाहियों में शफ़क़ घोलता रहा तन्हाइयों में आती रही जब भी उस की याद साया सा इक क़रीब मिरे डोलता रहा हुस्न-ए-बहार ख़ूब मगर दीदा-ए-बहार मोती चमन की ख़ाक पे क्यूँ रोलता रहा उस ने सुकूत को भी तकल्लुम समझ लिया कुछ इस अदा-ए-ख़ास से दिल बोलता रहा हिज्राँ की रात मश्ग़ला-ए-दिल से पूछिए उस ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म की गिरह खोलता रहा हम कुश्तगान-ए-ख़्वाब गिराँ-गोश ही रहे सूरज सरों पे वक़्त-ए-सहर बोलता रहा इस राह-ए-जज़्ब से भी गुज़रना पड़ा 'ज़हीर' जिस राह में ख़िरद का क़दम डोलता रहा