अहल-ए-दिल जिस को फ़ना और न बक़ा कहते हैं ज़िंदा रहने के इस अंदाज़ को क्या कहते हैं ज़िक्र उस शोख़ से करता है कोई जब मेरा रुख़ पे आ जाता है इक रंग-ए-हया कहते हैं ख़ाक उस शख़्स ने मुझ ही को किया सब जिस को शो'ला-रू शोला-नज़र शो'ला-नवा कहते हैं लम्हा भर इश्क़ पे अपने ज़रा खुल कर हँस लें गिर्या-ए-हिज्र है क़िस्मत में लिखा कहते हैं वही सुनता नहीं फ़रियाद हमारी ऐ दिल हम जिसे अपनी मोहब्बत का ख़ुदा कहते हैं न रह-ओ-रस्म है जिस से न दुआ और न सलाम फिर भी अहबाब मुझे उस पे फ़िदा कहते हैं बे-तकल्लुफ़ जो समा जाए निगाह-ओ-दिल में हम फ़क़त उस को मोहब्बत की अदा कहते हैं कितने बे-दीन हैं मत पूछ अवाम-ए-महकूम हर नए दौर के हाकिम को ख़ुदा कहते हैं ख़ास अपनों में भी होते हैं कुछ ऐसे बद-ख़्वाह दिल से चाहें जो बुरा मुँह पे भला कहते हैं दिल की आवाज़ है अब रूह का नौहा ऐ 'राज़' जाने क्यों लोग मुझे नग़्मा-सरा कहते हैं