ऐ सहाब-ए-वक़्त मुझ को देख कर ठहरा न कर धूप सर पर दाइमी है आरज़ी साया न कर आशिक़ी शाइस्तगी-ओ-राज़-दारी का है नाम ख़ुद भी बे-परवा न हो मुझ को भी बे-परवा न कर ज़िंदा रहना मोहलत-ए-इमरोज़ में है ज़िंदगी दोश-ओ-फ़र्दा का मआल ऐ बे-ख़बर सोचा न कर ख़ालिक़-ए-मंज़िल है तू रख अपनी हिम्मत पर यक़ीं रास्ते में नक़्श-ए-पा-ए-रहनुमा ढूँडा न कर सादगी पर मैं तिरी सौ जान से क़ुर्बान हूँ यूँ ब-अंदाज़-ए-तसन्नो' सामने आया न कर बाद के हाथों में कुछ कंकर हैं दश्त-ओ-कोह के नर्म मिट्टी से उगे ऐ नख़्ल सर ऊँचा न कर धड़कनों के ज़ेर-ओ-बम से राज़ हो जाते हैं फ़ाश ऐ दिल-ए-बेताब इस अंदाज़ से धड़का न कर आँखों आँखों में बयाँ कर हर हक़ीक़त 'राज़' की कान दीवारों के भी होते हैं लब खोला न कर