एहसास पे छाया है इक एहसास-ए-गराँ और अब दिल भी धड़कता है तो होता है गुमाँ और अल्लाह रे आशुफ़्तगी-ए-शौक़ का आलम करते हैं वो पुर्सिश तो गुज़रता है गुमाँ और थमती ही नहीं जोशिश-ए-जज़्बात-ए-मोहब्बत कहते हैं कुछ उन से तो बहकती है ज़बाँ और इक रब्त बहर-हाल है उस राहत-ए-जाँ से बढ़ता है तो बढ़ने दो अभी दर्द-ए-निहाँ और शायद कि अभी ख़त्म नहीं सिलसिला-ए-शौक़ नज़रों में है इक मंज़िल-ए-बेनाम-ओ-निशाँ और वाक़िफ़ हैं वो ख़ुद अपने हर अंदाज़-ए-सितम से हम कैसे कहें दिल में हैं ज़ख़्मों के निशाँ और क्या क़हर है मजबूरी-ए-आदाब-ए-मोहब्बत लेते हैं तिरा नाम तो रुकती है ज़बाँ और 'अह्मर' तपिश-ए-शौक़ सलामत है कि पहरों रह रह के अभी दिल से जो उठता है धुआँ और