ऐ असीर-ए-इश्क़ तुझ को इस का अंदाज़ा नहीं ये वो कमरा है कि जिस का कोई दरवाज़ा नहीं ये तिरी मा'सूमियत ये दिलबरी ये सादगी माँग में अफ़्शाँ नहीं रुख़्सार पर ग़ाज़ा नहीं इश्क़ में किस को हुआ है फ़ैज़ ऐसा कौन है कौन है ऐसा उठाया जिस ने ख़म्याज़ा नहीं कर सकेगा वो भला क्या मेरे ज़ख़्मों का इलाज ज़ख़्म की गहराई का भी जिस को अंदाज़ा नहीं ये तिरा बश्शाश चेहरा ये तरी ख़ंदा-लबी वक़्त ने 'शहज़र' दिया क्या तुझ को ग़म ताज़ा नहीं