ऐ काश कोई आए ख़रीदार की तरह

ऐ काश कोई आए ख़रीदार की तरह
अपना भी दिल है मिस्र के बाज़ार की तरह

जंगल की आग से वो किसी तौर कम नहीं
जो भी ज़बान चलती है तलवार की तरह

कल तक जो शहरयार था और बा-वक़ार था
अब जी रहा है ज़िंदगी नादार की तरह

सब देखते हैं आप के आ'माल रात दिन
कीजे न बात साहिब-ए-किरदार की तरह

गुज़रा है हम पे बारहा आलम जुदाई का
जागे हैं हम भी दीदा-ए-बेदार की तरह

कहने को ग़म-गुसार हैं इस शहर में बहुत
मिलता नहीं मगर कोई ग़म-ख़्वार की तरह

शायद हमारे शहर का मौसम ख़राब है
जिस को भी देखो चलता है बीमार की तरह

दो पल सुकूँ बहुत है मसाफ़त में दोस्तो
वो मेहरबाँ हैं साया-ए-दीवार की तरह

कहते हैं लोग उस के हुए वलवले तमाम
जो जी रहा था ज़िंदगी ज़रदार की तरह

एक एक क़तरा ख़ूँ का फ़राज़-ए-सलीब से
बरसा है दिल पे अब्र-ए-गुहर-बार की तरह

ज़ख़्मों की फ़स्ल अपने बदन में समेट कर
धरती को कर गया वो समन-ज़ार की तरह

उस से हिसाब-ए-ज़िंदगी माँगेगा कौन 'शौक़'
जीता रहा जो शहर में नादार की तरह


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