ऐ शुऊर-ए-ज़िंदगी दिल तेरा गिरवीदा भी है मस्लहत-कोशी से लेकिन तेरी ग़म-दीदा भी है अपने अश्कों का मैं हँस कर ख़ुद उड़ाता हूँ मज़ाक़ ज़िंदगी भर का मगर ग़म इन में पोशीदा भी है टूट कर धोके से भी बिखरे ये मुमकिन ही नहीं दिल मिरा सादा सही लेकिन जहाँ-दीदा भी है शोख़ी-ए-दौराँ से कह दीजे न छेड़े वो मुझे मेरी फ़ितरत में निहाँ इक शख़्स संजीदा भी है चंद ज़र्रे मेरी पलकों पर चमक कर रह गए वर्ना ये दिल एक संग-ए-ना-तराशीदा भी है कितने तूफ़ाँ चंद क़तरों से उठा सकता है दिल तुम अगर कह दो मिरी ख़ातिर तो रंजीदा भी है ज़िंदगी गुज़री है यूँ तो सब हवादिस में मगर है अभी इक हादिसा ऐसा जो नादीदा भी हे है मिरी नज़रों में 'साक़िब' वुसअ'त-ए-राह-ए-वफ़ा ज़ुल्फ़-ए-जानाँ की तरह लेकिन वो पेचीदा भी है