आइना अहद-ए-गुज़शता का बचा रह गया है ताक़-ए-निस्याँ पे अभी एक दिया रह गया है खिड़कियाँ सो गईं ख़ामोश हुए सारे चराग़ इक दरीचा मगर इस घर का खुला रह गया है ऐ हवा अब तो न कर आग उगलने का अमल शाख़ पर बस यही इक पत्ता हरा रह गया है कहीं ठोकर से कोई ज़ख़्म न आ जाए तुझे दिल हमारा तिरे क़दमों में पड़ा रह गया है अब है दरिया में कोई शोर न हलचल कोई हो के ख़ामोश मिरा संग-ए-नवा रह गया है किस लिए आई है तू उजड़े हुए गुलशन में अब भी कुछ कहने को क्या बाद-ए-सबा रह गया है ज़िक्र आ जाता है रस्मन सर-ए-महफ़िल अक्सर अब तिरा नाम फ़क़त ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रह गया है ऐसा लगता है कि कुछ मोड़ हैं बाक़ी ग़म के उठते उठते जो मिरा दस्त-ए-दुआ' रह गया है ऐ हवा रास्ता दे उस को निकलने के लिए बुझ गई आग धुआँ घर में भरा रह गया है किस लिए ज़िद किए है छोड़ के जाने की मुझे ख़ामुशी तेरे सिवा पास में क्या रह गया है उस के चेहरे पे चमक है न कोई रंग 'मुजीब' हाँ हथेली पे मगर रंग-ए-हिना रह गया है