ऐसा मुमकिन ही नहीं था मैं पुकारा जाता मैं न जाता तो कोई और ही मारा जाता लज़्ज़त-ए-वस्ल से अच्छी थी वो गिर्या-ज़ारी अब तो इस जीत से बेहतर था मैं हारा जाता इब्न-ए-आदम हूँ सेरानदीप के साहिल पे खड़ा मेरी ख़ातिर कोई दुनिया में उतारा जाता उस की आँखों से पढ़े थे जो सहीफ़े मैं ने उन सहीफ़ों से कोई नक़्श उभारा जाता हम जुनूँ-ख़ेज़ मराहिल से न गुज़रे वर्ना हम जिधर जाते उधर वक़्त का धारा जाता सुनना चाहोगे फ़ना होते हुए शख़्स का ख़्वाब जिस की हसरत थी तिरे नाम पे वारा जाता गर डुबोता वो मुझे ख़ुद भी न बचता दरिया मैं जो तूफ़ान में ढलता तो किनारा जाता इश्क़ वालों ही से निस्बत मिरी लिक्खी जाती तेरी गलियों में 'सफ़ी' काश गुज़ारा जाता