ऐसी आदत पड़ी लड़ाई की जान लेता है भाई भाई की उँगलियाँ उठती हैं ख़ुदाई की हत तिरी ऐसी बे-हयाई की धज्जियाँ मय-कदे में शैख़ की आज ख़ूब उड़ती हैं पारसाई की जब से हाथ आया उन के घर का निज़ाम सुन रहा हूँ बड़ी सफ़ाई की जिस के आगे ज़माना झुकता है है वो बस एक ज़ात नाई की जिस पे नेता की हो गईं नज़रें उस ने इस दौर में ख़ुदाई की वो हसीनों की जूतियाँ खाएँ हो ज़रूरत जिन्हें कमाई की इश्क़ की आग में जो जलता है उस को हाजत नहीं रज़ाई की