बे-इरादा कूचा-ए-क़ातिल में जाना पड़ गया फिर हमें अपना मुक़द्दर आज़माना पड़ गया क्या करोगे जब कभी शहर-ए-तमन्ना में तुम्हें हम से बे-आबाद लोगों को बसाना पड़ गया अपने बिगड़े ख़ाल-ओ-ख़द को आइने में देख कर आइना इक आइना-गर को दिखाना पड़ गया देख कर उस का रवय्या ख़ुद बुझाया था जिसे वो चराग़-ए-आरज़ू फिर से जलाना पड़ गया हिद्दत-ए-जज़्बात से जलने लगा था तन-बदन फिर थपक कर इन शरारों को सुलाना पड़ गया क्या कहें हम मौसमों के देवता को किस लिए दश्त-ओ-सहरा में बगूलों को सजाना पड़ गया देखना अहल-ए-चमन 'शाहिद' बुलाएँगे हमें जब चमन को बाद-ए-सर-सर से बचाना पड़ गया