अजब सौदा-ए-वहशत है दिल-ए-ख़ुद-सर में रहता है ये कैसी छब का मालिक है ये कैसे घर में रहता है उसी के दम-क़दम से है जहान-ए-दीद-ओ-नज़्ज़ारा कहीं आँखों में बस्ता है कहीं मंज़र में रहता है निहाल-ए-ख़ुश्क में अब तक वो सूखा ज़र्द सा पत्ता बरहना लगता है लेकिन लिबास-ए-ज़र में रहता है मिरी आँखों से ले कर तेरे चेहरे तक सितारे हैं कि जो गर्दिश में आ जाए उसी मेहवर में रहता है मैं अपने अक्स को रम-ख़ुर्दगी से बाज़ क्या रक्खूँ ग़ज़ाल-ए-आइना-ख़ाना किसी के डर में रहता है मुझे तो गोर-ए-गिर्या में सुला देते हैं घर वाले मगर एहसास-ए-बेदारी मिरे बिस्तर में रहता है