अजब सी कोई बे-यक़ीं रात थी कहीं थोड़ा दिन था कहीं रात थी गिरफ़्तार थी दर्द-ए-ज़ेह में बहुत वो तख़्लीक़ की अव्वलीं रात थी थीं चीज़ें जहाँ शक्ल पाने के बा'द वहीं दिन भी था और वहीं रात थी कहाँ थी ये जब तक कि ज़ाहिर न थी फ़लक पर कि ज़ेर-ए-ज़मीं रात थी मिरे साथ जो मेरे बिस्तर में थी वो सब से ज़्यादा हसीं रात थी निकलती थी जो रौशनी देखने किसी तीरा घर की मकीं रात थी मिले भी तो बिखरे हुए माह ओ साल कहीं दिन पड़ा था कहीं रात थी किसी ख़ार मानिंद चुभती रही ब-ज़ाहिर बड़ी मख़मलीं रात थी था नाराज़ दिन मेरे इक फ़ेअ'ल पर किसी बात पर ख़शम-गीं रात थी ज़्यादा ही गहरी थी 'शाहीं' शफ़क़ बड़ी देर तक आतिशीं रात थी