बहुत से मुद्दई' निकले मगर जाँ-बाज़ कम निकले पस-ए-मजनूँ हज़ारों आशिक़ों में एक हम निकले नहीं मुमकिन किसी से हुस्न की बारीकियाँ हल हों तिरे हर तार-ए-गेसू में हमारे पेच-ओ-ख़म निकले ये सूरत हो तो अपना ख़ात्मा बिल-ख़ैर हो जाए इधर हम सर झुकाएँ और उधर तेग़-ए-दो-दम निकले हमें अरमान है उस आस्ताँ पर ज़िंदगी गुज़रे इसी हसरत में जीते हैं कि उन क़दमों पे दम निकले