अपने अहद-ए-ज़वाल से निकली एक मछली कि जाल से निकली गुम हुई मुस्तक़िल अँधेरों में कोई सूरत ख़याल से निकली आह रौनक़ जो थी मिरे घर की अर्सा-ए-माह-ओ-साल से निकली पहले इक आग का समुंदर था बर्क़ मेरे जलाल से निकली ढल गई उम्र तो हुआ मालूम आँच सी ख़द्द-ओ-ख़ाल से निकली फ़िक्र तुम भी करो 'नसीम' अपनी ताज़गी अर्ज़-ए-हाल से निकली