अजाइबात-ए-मोहब्बत में जो शुमार हुआ वो अर्श-ओ-फ़र्श के माबैन बे-कनार हुआ करम भी उस का हुआ और बे-शुमार हुआ कभी वो उस का कभी मेरा ग़म-गुसार हुआ वो तेज़ तीर था यक-लख़्त जान से गुज़रा ख़लिश रही न कोई दिल के आर-पार हुआ स्याह रात घरों में उदासियाँ हर-सू सिपाहियों का मुझे ख़ौफ़ बार बार हुआ वो सुब्ह-ए-नूर थी जंगल भी कैसा रौशन था मगर ये शहर-ए-तलब क्यों पस-ए-ग़ुबार हुआ उसी ने मुझ को बताया मैं कौन था क्या था मैं पहले ख़ुद पे नहीं उस पे आश्कार हुआ असीर-ए-तीरा-शबी था कहाँ का तब्ल-ओ-अलम मियाँ से निकला जो ख़ंजर तो ताबदार हुआ