अज़ल क्या इब्तिदा हुस्न-ओ-मोहब्बत के तराने की अबद क्या सिर्फ़ इक बदली हुई सुर्ख़ी फ़साने की तड़पती बिजलियाँ फिर ख़ाना-बरबादी के दरपय हैं क़फ़स की ख़ैर यारब हो चुकी ख़ैर आशियाने की हमारी ज़िंदगी भी एक फ़ुर्सत थी मगर कितनी फ़क़त रंग-ए-तमन्ना के चढ़ाने या उड़ाने की क़फ़स इक तार है तन एक मिट्टी का घरौंदा है हक़ीक़त क़ैद की ये है ये हस्ती क़ैद-ख़ाने की वो आँखें देख कर मैं क्या ज़माना कहने लगता है कि उन में है जिसे कहते हैं सब गर्दिश ज़माने की हमारी ज़िंदगी बद-मस्तियों का दौर थी 'बेख़ुद' इधर हो कर नहीं निकली तमन्ना होश आने की