इम्तिहान-ओ-सब्र की हद क्यों पड़े ताख़ीर में जो न लिखवाए कोई लिख दे मिरी तक़दीर में ख़्वाब-ए-हस्ती देखने वाले थे कैसे बद-नसीब ख़्वाब का आलम भी गुज़रा दहशत-ए-ता'बीर में हश्र में हलचल हुई क़ातिल को ग़श आने लगे आए वो कुछ बे-गुनह जकड़े हुए ज़ंजीर में इन नसीबों पर थी क़ुदरत से उलझने की उमंग उम्र भर चोटें चलीं तदबीर और तक़दीर में और ही आलम है कुछ दुनिया-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का है यहाँ जो शय भी है डूबी हुई तासीर में नाज़ सज्दे में अदा हैरत में जल्वे वज्द में दिल ने ये देखा हरीम-ए-दोस्त की तस्वीर में ज़र्रे ज़र्रे से सदा-ए-बाज़गश्त आने लगी और क्या होता असर ज़ालिम तिरी तक़रीर में दिल को पैदा करके फ़ितरत ख़ुद ग़ज़ब में पड़ गई महव है इख़्फ़ा-ए-राज़-ए-दहर की तदबीर में जिस में थीं सारी ख़याल-ए-यार की आज़ादियाँ वो दिल-ए-रम-आफ़रीं जकड़ा रहा ज़ंजीर में क्यों किसी ने नक़्श-ए-आशोब-ए-तमन्ना खींच कर भर दिया मजबूरियों का रंग हर तस्वीर में अल्लह अल्लह एक ज़र्रे की भी हद मिलती नहीं रंग हो नक़्क़ाश का इतना तो हर तस्वीर में पा-ए-‘बेख़ुद’ में कुछ ऐसी बेड़ियाँ डाली गईं जिन से बा'द-ए-हश्र भी छुटना न था तक़दीर में