अज़्म-ए-सफ़र जब ख़ाम नहीं है फिर मंज़िल दो-गाम नहीं है इश्क़-ए-हबीब-ए-हक़ है जिन को उन को ग़म-ए-अय्याम नहीं है उस को सज़ा देते हैं मुंसिफ़ जिस पे कोई इल्ज़ाम नहीं है अख़्तर 'शेरी' के दर जैसा शहर में फ़ैज़-ए-आम नहीं है आईना मत देखो 'रिफ़अत' अब चेहरा गुलफ़ाम नहीं है