ये दुनिया आनी-जानी है कोई दाइम नहीं रहता सदा ख़ुशियाँ नहीं रहतीं हमेशा ग़म नहीं रहता लहू को गर्म रखती है मसाइल की गिराँ-बारी दिल-ए-मुर्दा उसे कहिए कि जिस में ग़म नहीं रहता यही बस्ती है जिस के हर गली कूचे से निस्बत थी मगर अब याँ कोई हमदम कोई महरम नहीं रहता निकल अब अपने मस्कन से मुक़द्दर है तिरा हिजरत कि दरिया अपने मख़रज पर भी तो क़ाएम नहीं रहता बदलती रहती हैं क़द्रें बदल जाती हैं तहज़ीबें ज़माना एक मस्लक पर सदा क़ाएम नहीं रहता ज़बानें इर्तिक़ा की मंज़िलों से जब गुज़रती हैं बहुत से लफ़्ज़ कट जाते हैं जिन में दम नहीं रहता 'सरोश' आख़िर यहाँ किस किस के दर पर दस्तकें दोगे यहाँ अग़्यार बस्ते हैं कोई महरम नहीं रहता