अजीब उस से त'अल्लुक़ जनाब मेरा था किसी के हक़ में थी ता'बीर ख़्वाब मेरा था उदास भी न रहूँ मैं ये कैसे मुमकिन है वही तो शहर में इक इंतिख़ाब मेरा था न थी उमीद कोई फिर भी जुस्तुजू में तिरी न जाने क्यों दिल-ए-ख़ाना-ख़राब मेरा था कहीं मिलेंगे अँधेरे तो याद आएगा किसी सफ़र में कोई आफ़्ताब मेरा था वो सारी रात रहा करवटों के आलम में उठा तो जागती आँखों में ख़्वाब मेरा था