अकेली रात थी चारों तरफ़ अंधेरा था

अकेली रात थी चारों तरफ़ अंधेरा था
और एक पेड़ से मेरा ही हाथ निकला था

अजीब धुन थी कि बढ़ते ही जा रहे थे क़दम
हर इक तरफ़ से मुझे आंधियों ने घेरा था

नज़र तो आए थे हम को भी पाँव उठते हुए
फिर इस के बाद बहुत दूर तक अंधेरा था

बिखर रहे थे अंधेरे हमारे सर पे मगर
उफ़ुक़ से ता-बा-उफ़ुक़ चाँदनी का डेरा था

मेरे ख़याल में आ कर निकल गया वो रंग
जो आसमाँ पे हरा और ज़मीं पे नीला था

सभी की उँगलियाँ उट्ठी थीं बस मिरी जानिब
न जाने मैं ने ये किस का लिबास पहना था

चमक रहे थे सितारे जहाँ-जहाँ 'अजमल'
वहीं वहीं पे ज़रा आसमान गहरा था


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