आँखें खुली हैं ख़्वाब मगर देख रही हूँ ता-हद्द-ए-नज़र ग़म की डगर देख रही हूँ लाचार हूँ बेबस हूँ मगर देख रही हूँ लुटते हुए अपना ये नगर देख रही हूँ इस धूप की शिद्दत में कहाँ साया मिलेगा गिरते हुए मैं सारे शजर देख रही हूँ वो जिन के लहू-रंग से ये शहर सजा है घर उन के हुए ज़ेर-ओ-ज़बर देख रही हूँ दरिया ने है रुख़ बदला बहाएगा ये किस को ख़ामोश खड़ी इस का सफ़र देख रही हूँ इक रोज़ की ये बात नहीं मेरी 'रूबीना' सदियों से मैं उजड़ा हुआ घर देख रही हूँ