अक्सर मैं सोचती हूँ कि ऐसा हुआ है क्यों मायूस हूँ ख़ुदा से तो लब पर दुआ है क्यों दिल की ज़मीं वही है वही है हवा-ए-दहर फिर शाख़-ए-ग़म पे एक ही पत्ता हरा है क्यों माज़ी न हो तो हाल की पहचान भी न हो फिर ज़िंदगी पे वक़्त का पहरा लगा है क्यों उस के बग़ैर कैसे गुज़ारी है ज़िंदगी सब कुछ वो जानता है तो फिर पूछता है क्यों आवाज़ दे रही हूँ तो देता नहीं जवाब और ये भी कह न पाया कि मुझ से ख़फ़ा है क्यों शायद मिरी नज़र का ये 'शबनम' कमाल है वो सब के साथ रह के भी सब से जुदा है क्यों