शो'ला हूँ फिर भी बर्फ़ के इक पैरहन में हूँ महसूस हो रहा है कि ज़िंदा कफ़न में हूँ अब जाहिलों सी बात भी करना मुहाल है काटी हुई ज़बान की सूरत दहन में हूँ क्या मरहला है अह्द-ए-सफ़र से सफ़र तलक पाँव रुके हुए हैं मुसलसल थकन में हूँ चाहत के हर मुहीत से बाहर हैं वलवले हिजरत करे है सोच मगर ख़ुद वतन में हूँ फैला हुआ हूँ धूप की सूरत नगर नगर 'अख़्तर' मैं बू-ए-गुल की तरह हर चमन में हूँ