शुऊर-ए-ग़म की तन्हाई से जल-थल हो चुकी है मैं कोई ज़िंदगी था जो मोअ'त्तल हो चुकी है कोई इमदाद का पहलू निकल आने से पहले जो मुश्किल थी हमारे सामने हल हो चुकी है सहर का जिस्म क्यों तकते नहीं हैं बस्ती वाले शब-ए-उफ़्ताद तो आँखों से ओझल हो चुकी है न अब दिखलाओ उन से मिलता-जुलता कोई चेहरा मिरे अंदर की दुनिया कब की पागल हो चुकी है हुई नज़दीक मंज़िल तो नहीं चलने का यारा बदन कमज़ोर है या खाल बोझल हो चुकी है हमारे सर से अब्र-ए-आफ़ियत गुज़रे तो जानें हवा रफ़्तार में कितनी मुसलसल हो चुकी है फ़सीलें सामराजी तौक़ पहने रो रही हैं कहानी शाहज़ादों की मुकम्मल हो चुकी है