अल्लाह बशर जाह-ओ-हशम बेच रहे हैं ख़ुद-साख़्ता पत्थर के सनम बेच रहे हैं मग़रिब की तअ'फ़्फ़ुन-ज़दा तहज़ीब के बदले हम अर्ज़-ए-मुक़द्दस का हरम बेच रहे हैं बेबाक सदाक़त से जो मंसूब रहा है दिल रोता है क्यों लोग क़लम बेच रहे हैं हैरान हूँ मैं सख़्ती-ए-जाँ देख के उन की किस दिल से वो रूदाद-ए-सितम बेच रहे हैं पेशा है किसी का तो कोई भूक से मजबूर बाज़ार-ए-अदालत में क़सम बेच रहे हैं हिजरत हुई अज़हान पे कुछ ऐसे मुसल्लत वो घर था जो इक बाग़-ए-इरम बेच रहे हैं 'असअद' यहाँ मज़हब है मुनाफ़ा' की तिजारत हर मोड़ पे अब लोग धरम बेच रहे हैं